मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू
कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ
Wasi Shah
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शर्मा के यूँ न देख अदा के मक़ाम से
रद्द-ए-अमल
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
बहुत घुटन है
हर तरह के जज़्बात का एलान हैं आँखें
मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
मैं ज़िंदा हूँ ये मुश्तहर कीजिए
नूर-जहाँ के मज़ार पर
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से