मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए
अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम
Parveen Shakir
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Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
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लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
तरह-ए-नौ
भूल सकता है भला कौन ये प्यारी आँखें
अपने अंदर ज़रा झाँक मेरे वतन
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा
इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ
चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
मायूस तो हूँ वा'दे से तिरे
आज