माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम
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जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं
फ़रार
मैं नहीं तो क्या
एक मंज़र
न तो ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
इंतिज़ार
रद्द-ए-अमल
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
जीवन के सफ़र में राही
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
मिरे गीत
इतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें