हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार
हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं
Mir Taqi Mir
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देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
जीवन के सफ़र में राही
आज
मिरी नदीम मोहब्बत की रिफ़अ'तों से न गिर
लब पे पाबंदी तो है
एक मुलाक़ात
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
बरसो राम धड़ाके से
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे
दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
गो मसलक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी है कोई चीज़