इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
Javed Akhtar
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ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
जो बात तुझ में है तिरी तस्वीर में नहीं
अहल-ए-दिल और भी हैं
रंगों में तेरा अक्स ढला तू न ढल सकी
ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई
जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने
उमीद
एक मुलाक़ात
कभी कभी