दुल्हन बनी हुई हैं राहें
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
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अब वो करम करें कि सितम मैं नशे में हूँ
लब पे पाबंदी तो है
तरब-ज़ारों पे क्या गुज़री सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री
ख़ुदा-ए-बर्तर तिरी ज़मीं पर ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्यूँ है
तुझ को ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को
उमीद
पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
हर क़दम मरहला-दार-ओ-सलीब आज भी है
अहल-ए-दिल और भी हैं
हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है