देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
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हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया
ख़ाना-आबादी
बहुत घुटन है
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
ग़ैरों पे करम अपनों पे सितम
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
शहज़ादे
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
मैं जागूँ सारी रैन सजन तुम सो जाओ