शिकस्त-ए-ज़िंदाँ
ख़बर नहीं कि बला-ख़ाना-ए-सलासिल में
तिरी हयात-ए-सितम-आश्ना पे क्या गुज़री
ख़बर नहीं कि निगार-ए-सहर की हसरत में
तमाम रात चराग़-ए-वफ़ा पे क्या गुज़री
मगर वो देख फ़ज़ा में ग़ुबार सा उट्ठा
वो तेरे सुर्ख़ जवानों के राहवार आए
नज़र उठा कि वो तेरे वतन के मेहनत-कश
गले से कोहना ग़ुलामी का तौक़ उतार आए
उफ़ुक़ पे सुब्ह-ए-बहाराँ की आमद आमद है
फ़ज़ा में सुर्ख़ फरेरों के फूल खिलते हैं
ज़मीन ख़ंदा-ब-लब है शफ़ीक़ माँ की तरह
कि उस की गोद में बिछड़े रफ़ीक़ मिलते हैं
शिकस्त-ए-मजलिस-ओ-ज़िन्दाँ का वक़्त आ पहुँचा
वो तेरे ख़्वाब हक़ीक़त में ढाल आए हैं
नज़र उठा कि तिरे देस की फ़ज़ाओं पर
नई बहार नई जन्नतों के साए में
दरीदा-तन है वो क़हबा-ए-सीम-ओ-ज़र जिस को
बहुत सँभाल के लाए थे शातिरान-ए-कुहन
रबाब छेड़ ग़ज़ल-ख़्वाँ हो रक़्स-फ़रमा हो
कि जश्न-ए-नुसरत-ए-मेहनत है जश्न-ए-नुसरत-ए-फ़न
मैं तुझ से दूर सही लेकिन ऐ रफ़ीक़ मिरे
तिरी वफ़ा को मिरी जेहद-ए-मुस्तक़िल का सलाम
तिरे वतन को तिरी अर्ज़-ए-बा-हमीयत को
धड़कते खौलते हिन्दोस्ताँ के दिल का सलाम
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