मुफ़ाहमत
नशेब-ए-अर्ज़ पे ज़र्रों को मुश्तइ'ल पा कर
बुलंदियों पे सफ़ेद-ओ-सियाह मिल ही गए
जो यादगार थे बाहम सतीज़ा-कारी की
ब-फ़ैज़-ए-वक़्त वो दामन के चाक सिल ही गए
जिहाद ख़त्म हुआ दौर-ए-आश्ती आया
सँभल के बैठ गए महमिलों में दीवाने
हुजूम तिश्ना-लबाँ की निगाह से ओझल
छलक रहे हैं शराब-ए-हवस के पैमाने
ये जश्न जश्न-ए-मसर्रत नहीं तमाशा है
नए लिबास में निकला है रहज़नी का जुलूस
हज़ार शम-ए-उख़ुव्वत बुझा के चमके हैं
ये तीरगी के उभारे हुए हसीं फ़ानूस
ये शाख़-ए-नूर जिसे ज़ुल्मतों ने सींचा है
अगर फली तो शरारों के फूल लाएगी
ये फल सकी तो नई फ़स्ल-ए-गुल के आने तक
ज़मीर-ए-अर्ज़ में इक ज़हर छोड़ जाएगी
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