लम्ह-ए-ग़नीामत
मुस्कुरा ऐ ज़मीन तीरा-ओ-तार
सर उठा ऐ दबी हुई मख़्लूक़
देख वो मग़रिबी उफ़ुक़ के क़रीब
आँधियाँ पेच-ओ-ताब खाने लगीं
और पुराने क़िमार-ख़ाने में
कोहना शातिर बहम उलझने लगे
कोई तेरी तरफ़ नहीं निगराँ
ये गिराँ-बार सर्द ज़ंजीरें
ज़ंग-ख़ुर्दा हैं आहनी ही सही
आज मौक़ा है टूट सकती हैं
फ़ुर्सत-ए-यक-नफ़स ग़नीमत जान
सर उठा ऐ दबी हुई मख़्लूक़
(581) Peoples Rate This