इंसाफ़ का तराज़ू जो हाथ में उठाए
इंसाफ़ का तराज़ू जो हाथ में उठाए
जुर्मों को ठीक तोले
ऐसा न हो कि कल का इतिहास-कार बोले
मुजरिम से भी ज़ियादा
मुंसिफ़ ने ज़ुल्म ढाया
कीं पेश उस के आगे ग़म की गवाहियाँ भी
रक्खीं नज़र के आगे दिल की तबाहियाँ भी
उस को यक़ीं न आया
इंसाफ़ कर न पाया
और अपने उस अमल से
बद-कार मुजरिमों के नापाक हौसलों को
कुछ और भी बढ़ाया
इंसाफ़ का तराज़ू जो हाथ में उठाते
ये बात याद रक्खे
सब मुंसिफ़ों से ऊपर
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