एक शाम
क़ुमक़ुमों की ज़हर उगलती रौशनी
संग-दिल पुर-हौल दीवारों के साए
आहनी बुत देव-पैकर अजनबी
चीख़ती चिंघाड़ती ख़ूनीं सराए
रूह उलझी जा रही है क्या करूँ
चार जानिब इर्तिआश-ए-रंग-ओ-नूर
चार जानिब अजनबी बाँहों के जाल
चार जानिब ख़ूँ-फ़िशाँ परचम बुलंद
मैं मिरी ग़ैरत मिरा दस्त-ए-सवाल
ज़िंदगी शरमा रही है क्या करूँ
कार-गाह-ए-ज़ीस्त के हर मोड़ पर
रूह-ए-चंगेज़ी बर-अफ़गन्दा-नक़ाब
थाम ऐ सुब्ह जहान-ए-नौ की ज़ौ
जाग ऐ मुस्तक़बिल-ए-इंसाँ के ख़्वाब
आस डूबी जा रही है क्या करूँ
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