ऐ नई नस्ल
मेरे अज्दाद का वतन ये शहर
मेरी ता'लीम का जहाँ ये मक़ाम
मेरे बचपन की दोस्त ये गलियाँ
जिन में रुस्वा हुआ शबाब का नाम
याद आते हैं इन फ़ज़ाओं में
कितने नज़दीक और दूर के नाम
कितने ख़्वाबों के मल्गजे चेहरे
कितनी यादों के मरमरीं अज्साम
कितने हंगामे कितनी तहरीकें
कितने नारे जो थे ज़बाँ ज़द-ए-आम
मैं यहाँ जब शुऊ'र को पहुँचा
अजनबी क़ौम की थी क़ौम ग़ुलाम
यूनियन जैक दरस-गाह पे था
और वतन में था सामराजी निज़ाम
इसी मिट्टी को हाथ में ले कर
हम बने थे बग़ावतों के इमाम
यहीं जाँचे थे धर्म के विश्वास
यहीं परखे थे दीन के औहाम
हैं मुंकिर बने रिवायत के
यहीं तोड़े रिवाज के असनाम
यहीं निखरा था ज़ौक़-ए-नग़्मा-गरी
यहीं उतरा था शे'र का इल्हाम
मैं जहाँ भी रहा यहीं का रहा
मुझ को भूले नहीं हैं ये दर-ओ-बाम
नाम मेरा जहाँ जहाँ पहुँचा
साथ पहुँचा है इस दयार का नाम
मैं यहाँ मेज़बाँ भी मेहमाँ भी
आप जो चाहें दीजिए मुझे नाम
नज़्र करता हूँ उन फ़ज़ाओं की
अपना दिल अपनी रूह अपना कलाम
और फ़ैज़ान-ए-इल्म जारी हो
और ऊँचा हो इस दयार का नाम
और शादाब हो ये अर्ज़-ए-हसीं
और महके ये वादी-ए-गुलफ़ाम
और उभरें सनम-गरी के नुक़ूश
और छल्कें मय-ए-सुख़न के जाम
और निकलें वो बे-नवा जिन को
अपना सब कुछ कहें वतन के अवाम
क़ाफ़िले आते जाते रहते हैं
कब हुआ है यहाँ किसी का क़याम
नस्ल-दर-नस्ल काम जारी है
कार-ए-दुनिया कभी हुआ न तमाम
कल जहाँ मैं था आज तू है वहाँ
ऐ नई नस्ल तुझ को मेरा सलाम
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