बे-हिस के तग़ाफ़ुल का तो शिकवा बे-सूद
पत्थर से पिघलने का तक़ाज़ा बे-सूद
बेगाना है जो रस्म-ए-रवा-दारी से
उस दिल से मुरव्वत की तमन्ना बे-सूद
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जब बिगड़ते हैं बात बात पे वो
हम क़रीब आ कर और दूर हुए
अब तो एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं
मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
सदा-ए-जावेदाँ
आख़िर तड़प तड़प के ये ख़ामोश हो गया
वो और होंगे पी के जो सरशार हो गए
दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
गाँधी
ख़्वाब देखे थे सुहाने कितने
इश्क़ क्या चीज़ है ये पूछिए परवाने से