जब बिगड़ते हैं बात बात पे वो
वस्ल के दिन क़रीब होते हैं
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कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
सदा-ए-जावेदाँ
अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी
ये इख़्लास-ए-गराँ-माया बहुत है
दौर-ए-चर्ख़-ए-कबूद जारी है
फिर किसी बेवफ़ा की याद आई
हर एक फूल के दामन में ख़ार कैसा है
मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
वो जिस को हम ने अपनाया बहुत है
हम को अग़्यार का गिला क्या है
वो और होंगे पी के जो सरशार हो गए
दर्द-ए-दिल भी कभी लहू होगा