हम को अग़्यार का गिला क्या है
ज़ख़्म खाएँ हैं हम ने यारों से
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अहल-ए-कशती ने ख़ुद-कुशी की थी
अदू-ए-बद-गुमाँ की दास्ताँ कुछ और कही है
अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी
कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
जब बिगड़ते हैं बात बात पे वो
तुम न तौबा करो जफ़ाओं से
नई सुब्ह
वो जिस को हम ने अपनाया बहुत है
मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
हम क़रीब आ कर और दूर हुए
हर एक फूल के दामन में ख़ार कैसा है