दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
फूल खिलते हैं बहार आती नहीं
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वो और होंगे पी के जो सरशार हो गए
अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी
तुम न तौबा करो जफ़ाओं से
हम क़रीब आ कर और दूर हुए
अहल-ए-कशती ने ख़ुद-कुशी की थी
इश्क़ क्या चीज़ है ये पूछिए परवाने से
दर्द-ए-दिल भी कभी लहू होगा
हम को अग़्यार का गिला क्या है
गाँधी
आप से क्या दोस्ती होने लगी
बस फ़र्क़ इस क़दर है गुनाह ओ सवाब में
नई सुब्ह