टालने से वक़्त क्या टलता रहा
टालने से वक़्त क्या टलता रहा
आस्तीं में साँप इक पलता रहा
मौत भी लेती रही अपना ख़िराज
कारोबार-ए-ज़ीस्त भी चलता रहा
कोई तो साँचा कभी आएगा रास
मैं हर इक साँचे में यूँ ढलता रहा
शहर के सारे महल महफ़ूज़ थे
तेरा मेरा आशियाँ जलता रहा
ज़िंदगी में और सब कुछ था हसीं
अपना होना ही मुझे खलता रहा
बुझ गए तहज़ीब-ए-नौ के सब चराग़
एक मिट्टी का दिया जलता रहा
आरज़ूएँ ख़ाक में मिलती रहीं
नख़्ल-ए-उल्फ़त फूलता फलता रहा
बन के सोने का हिरन तेरा वजूद
मेरे महसूसात को छलता रहा
रात भर सूनी रही बिरहन की सेज
और आँगन में दिया जलता रहा
ज़िक्र-ए-हक़ भी था बजा 'साहिर' मगर
मय-कशी का दौर भी चलता रहा
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