ख़्वाब देखे थे सुहाने कितने
ख़्वाब देखे थे सुहाने कितने
जाग उठे दर्द पुराने कितने
एक जल्वे की फ़रावानी से
बन गए आइना-ख़ाने कितने
चाल से हाल की लाते हैं ख़बर
लोग होते हैं सियाने कितने
बूझ कर भी न बताऊँ तुझ को
तेरी मुट्ठी में हैं दाने कितने
बे-इरादा जो हुए अश्क-ए-रवाँ
लुट गए ग़म के ख़ज़ाने कितने
तुम ज़रा रूठ के देखो तो सही
लोग आते हैं मनाने कितने
हम ने सिर्फ़ एक तबस्सुम के लिए
ज़ख़्म खाए हैं न जाने कितने
डूब मरने का नहीं कोई जवाज़
ज़िंदा रहने के बहाने कितने
सर्द-मेहरी से तिरी महफ़िल में
जल-बुझे लोग न जाने कितने
याद-ए-माज़ी से सिमट आए हैं
एक लम्हे में ज़माने कितने
इक नज़र देखा था उस ने 'साहिर'
गढ़ लिए दिल ने फ़साने कितने
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