जला है किस क़दर दिल ज़ौक़-ए-काविश-हा-ए-मिज़्गाँ पर
जला है किस क़दर दिल ज़ौक़-ए-काविश-हा-ए-मिज़्गाँ पर
कि सौ सौ नश्तरों की नोक है इक इक रग-ए-जाँ पर
पड़ा होगा मगर अक्स-ए-एज़ार-ए-लाला-गूँ वर्ना
ये गुस्ताख़ी हमारा ख़ून और क़ातिल के दामाँ पर
तरीक़-ए-इश्क़ में है रंज पहले और ख़ुशी पीछे
मदार-ए-सुब्ह रोज़-ए-वस्ल है इक शाम-ए-हिज्राँ पर
मिरी दीवानगी रोज़-ए-क़यामत मेरे काम आई
क़लम रहमत का खींचा उस ने आख़िर मेरे इस्याँ पर
अगर उन के तग़ाफ़ुल को है दावा अपनी तमकीं का
हमारी ख़ुद-फ़रामोशी को है नाज़ अपने निस्याँ पर
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