बीम-ओ-रजा में क़ैद हर इक माह-ओ-साल है
बीम-ओ-रजा में क़ैद हर इक माह-ओ-साल है
जैसे ये ज़िंदगी भी कोई यर्ग़माल है
उलझा हूँ आती जाती सदाओं से बारहा
बिछड़ा हूँ हर नवा से कि ख़्वाब-ओ-ख़याल है
टूटा हूँ इस तरह कि बिखरता चला गया
बिखरा हूँ इस तरह कि सँवरना मुहाल है
इस जब्र-ओ-इख़्तियार से पामाल मैं भी हूँ
ऐ रूह-ए-एहतिजाज बता क्या ख़याल है
वीरान रहगुज़ार पे उड़ती है रोज़ ख़ाक
अब तक मिरी तलाश में बाद-ए-शिमाल है
सूरत-गरी के शौक़ ने गुमराह कर दिया
अब मैं मिरी जबीं मिरा दस्त-ए-सवाल है
बस यूँही मत गुज़र कभी सहबा से बात कर
कहते हैं उस से मिलना बड़ा नेक फ़ाल है
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