तुम ने कहा था चुप रहना सो चुप ने भी क्या काम किया
चुप रहने की आदत ने कुछ और हमें बदनाम किया
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ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
मुझे मिला वो बहारों की सरख़ुशी के साथ
मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो
कुल जहाँ इक आईना है हुस्न की तहरीर का
मैं बहारों के रूप में गुम था
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
हर रात का ख़्वाब
शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
यूँ भी हुआ इक अर्से तक इक शे'र न मुझ से तमाम हुआ