शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
सूरत न दे यक़ीन की इस एहतिमाल को
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'सहबा' साहब दरिया हो तो दरिया जैसी बात करो
सुबूत माँग रहे हैं मिरी तबाही का
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
पागल औरत
ख़ून ताज़ा
गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है
मैं बहारों के रूप में गुम था
मुझे मिला वो बहारों की सरख़ुशी के साथ
जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
कुल जहाँ इक आईना है हुस्न की तहरीर का
सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा