'सहबा' साहब दरिया हो तो दरिया जैसी बात करो
तेज़ हवा से लहर तो इक जौहड़ में भी आ जाती है
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असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो
गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है
ख़ून ताज़ा
शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
अगर शुऊर न हो तो बहिश्त है दुनिया
मिरी तन्हाइयों को कौन समझे
आ जा अँधेरी रातें तन्हा बिता चुका हूँ
इस बे तुलूअ' शब में क्या तालेअ'-आज़माई
मैं उसे समझूँ न समझूँ दिल को होता है ज़रूर