मैं उसे समझूँ न समझूँ दिल को होता है ज़रूर
लाला ओ गुल पर गुमाँ इक अजनबी तहरीर का
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हर रात का ख़्वाब
मैं बहारों के रूप में गुम था
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है
तुम ने कहा था चुप रहना सो चुप ने भी क्या काम किया
पागल औरत
मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो
इस बे तुलूअ' शब में क्या तालेअ'-आज़माई