दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
इस डगर को भी कोई राही दे
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आ जा अँधेरी रातें तन्हा बिता चुका हूँ
हर रात का ख़्वाब
जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
इस बे तुलूअ' शब में क्या तालेअ'-आज़माई
इस तरीक़े को अदावत में रवा रखता हूँ मैं
ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है
मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो
दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को
कुल जहाँ इक आईना है हुस्न की तहरीर का
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
साँप सपेरा और मैं