बयान-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम न कर कि वो फ़ित्ना
मिरी ज़मीं से नहीं तेरे आसमाँ से उठा
Wasi Shah
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जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
तुम ने कहा था चुप रहना सो चुप ने भी क्या काम किया
कुल जहाँ इक आईना है हुस्न की तहरीर का
आ जा अँधेरी रातें तन्हा बिता चुका हूँ
दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
मेरे सुख़न की दाद भी उस को ही दीजिए
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
साँप सपेरा और मैं
अगर शुऊर न हो तो बहिश्त है दुनिया