दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को
दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को
गुज़रे कई फ़िराक़ किसी के विसाल को
रिश्ता ब-जुज़-गुमान न था ज़िंदगी से कुछ
मैं ने फ़क़त क़यास किया माह ओ साल को
शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
सूरत न दे यक़ीन की इस एहतिमाल को
तर्ग़ीब का है वुसअत-ए-इम्काँ पे इन्हिसार
रम-ख़ुर्दगी सिखाता है सहरा ग़ज़ाल को
'सहबा' सदा बहार है ये गुलसिन-ए-फ़न
मुमकिन नहीं ज़वाल सुख़न के कमाल को
(513) Peoples Rate This