हम क़त्ल कब हुए ये पता ही नहीं चला
हम क़त्ल कब हुए ये पता ही नहीं चला
अंदाज़ था अजब कि वो ख़ंजर अजीब था
उम्मीद-ए-बारयाबी तो मुझ को न थी मगर
साहिल पे आ गया मैं समुंदर अजीब था
दम-भर को भी निगाह न चेहरे पे टिक सकी
उस पैकर-ए-जमाल का तेवर अजीब था
तन्हा भी रह के हम कभी तन्हा नहीं हुए
हमराह उस की यादों का दफ़्तर अजीब था
हम-दम गुमान होता था फूलों की सेज का
ख़ारों से वो सजा हुआ बिस्तर अजीब था
हम महव-ए-जुस्तुजू थे 'सहर' मुस्तक़िल मगर
मंज़िल मिली न फिर भी मुक़द्दर अजीब था
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