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ज़र्द सूरज - सहर अंसारी कविता - Darsaal

ज़र्द सूरज

मुहीब रूहों के क़हक़हों से

मआसिर-ए-जाँ लरज़ उठे हैं

लहू की रफ़्तार ज़हर-ए-क़ातिल की धार बन कर

दिल की गहराइयों में पैहम उतर रही है

हड्डियाँ आगही की बेदार आग में फिर पिघल रही हैं

हयात से बे-ख़बर फ़ज़ाओं में

जिस्म तहलील हो रहा है

शब-ए-सियह के डरावने फ़ासलों से लटकी हुई

शप्परा-चश्म आरज़ूएँ ये चाहती हैं

कि तीरगी को मैं रूह अपनी फ़रोख़्त कर दूँ

और उस उजाले को भूल जाऊँ

जो अब भी मेरा मसीह-ए-मौऊद-ए-जिस्म-ओ-जाँ है

मुहीब रूहों के क़हक़हों ने

मेरी आवाज़ छीन ली है

मैं घर की दीवार पर निगाहें जमाए बैठा हूँ

जैसे मेरे तमाम अल्फ़ाज़ घर की दीवार में निहाँ हैं

मुहीब रूहों के क़हक़हों में

कुछ अजनबी अजनबी सदाएँ उभर रही हैं

वक़्त का चाक चल रहा है

ज़मीन की साँस उखड़ रही है

मैं सोचता हूँ

वो ज़र्द सूरज न-जाने कब आएगा

कि जिस का

किताब-ए-सय्यारगाँ में वा'दा किया गया है

किताब-ए-सय्यारगाँ के मालिक

मैं इस अँधेरे से थक गया हूँ

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In Hindi By Famous Poet Sahar Ansari. is written by Sahar Ansari. Complete Poem in Hindi by Sahar Ansari. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.