सर-ए-राह
लम्हा भर के लिए चलते चलते क़दम रुक गए
ख़ून के ताज़ा ताज़ा निशाँ छोड़ कर
खाँसती ज़िंदगी दोनों हातों से सीने को थामे हुए
जाने किस मोड़ पर जा के गुम हो गई
रास्ते की स्याही से लिपटा रहा
इक असासा जिसे अपने वारिस की कोई ज़रूरत न थी
एक टूटा हुआ आइना
जिस में आईना-गर की भी सूरत न थी
मेरी आँखों ने उस ख़ून-ए-ताज़ा का नौहा पढ़ा
मेरी साँसों का डोरा उलझने लगा
और फिर मेरा इंसान कुछ देर में
अपने ही जैसे इंसान के ख़ून से डर गया
एक नादीदा मख़्लूक़ के ख़ौफ़ से मर गया
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