महसूस क्यूँ न हो मुझे बेगानगी बहुत
महसूस क्यूँ न हो मुझे बेगानगी बहुत
मैं भी तो इस दयार में हूँ अजनबी बहुत
आसाँ नहीं है कश्मकश-ए-ज़ात का सफ़र
है आगही के बा'द ग़म-ए-आगही बहुत
हर शख़्स पुर-ख़ुलूस है हर शख़्स बा-वफ़ा
आती है अपनी सादा दिली पर हँसी बहुत
उस जान-ए-जाँ से क़त-ए-तअल्लुक़ के बावजूद
उस रहगुज़र में आज भी है दिलकशी बहुत
इस वज़-ए-एहतियात की ज़ंजीर के लिए
मैं ने भी की है शहर में आवारगी बहुत
मस्ताना-वार वादी-ए-ग़म तय करो 'सहर'
बाक़ी हैं ज़िंदगी के तक़ाज़े अभी बहुत
(530) Peoples Rate This