क्या किसी लम्हा-ए-रफ़्ता ने सताया है तुझे
क्या किसी लम्हा-ए-रफ़्ता ने सताया है तुझे
इन दिनों मैं ने परेशान सा पाया है तुझे
बहर-ए-शादाबी-ए-जज़्बात की ऐ मौज-ए-रवाँ
कौन इस दश्त-ए-बला-ख़ेज़ में लाया है तुझे
तेरी तनवीर सलामत मगर ऐ महर-ए-मुबीं
घर की दीवार पे यूँ किस ने सजाया है तुझे
शिकवा-ए-तलख़ी-ए-हालात बजा है लेकिन
इस पे रोता हूँ कि मैं ने भी रुलाया है तुझे
गाह पहना है तुझे ख़िलअत-ए-ज़र्रीं की तरह
गाह पैवंद के मानिंद छुपाया है तुझे
तू कभी मुझ से रही मिस्ल-ए-सबा दामन-कश
और कभी अपने ही बिस्तर पे सुलाया है तुझे
मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी में नहीं कोई कलाम
रूठ के सारे ज़माने से मनाया है तुझे
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