न जाने क्यूँ सदा होता है एक सा अंजाम
न जाने क्यूँ सदा होता है एक सा अंजाम
हम एक सी तो कहानी सदा नहीं कहते
जिधर पहुँचना है आग़ाज़ भी वहीं से हुआ
सफ़र समझते हैं इस को सज़ा नहीं कहते
नया शुऊर नए इस्तिआरे लाता है
अज़ल से लोग ख़ुदा को ख़ुदा नहीं कहते
जो गीत चुनते हैं ख़ामोशियों के सहरा से
वो लब-कुशाओं को राज़-आश्ना नहीं कहते
फ़ज़ा का लफ़्ज़ है उस के लिए अलग मौजूद
जो घर ठहरती है उस को हवा नहीं कहते
ज़माने भर से उलझते हैं जिस की जानिब से
अकेले-पन में उसे हम भी क्या नहीं कहते
जो देख लेते हैं चीज़ों के आर-पार 'मलाल'
किसी भी चीज़ को इतना बुरा नहीं कहते
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