साक़िया एक जाम पीने से
जन्नतें लड़खड़ा के मिलती हैं
लाला-ओ-गुल कलाम करते हैं
रहमतें मुस्कुरा के मिलती हैं
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अब न आएँगे रूठने वाले
मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
हर शय है पुर-मलाल बड़ी तेज़ धूप है
ख़ता-वार-ए-मुरव्वत हो न मरहून-ए-करम हो जा
लोग कहते हैं रात बीत चुकी
जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
वक़्त के रंगीं गुल-दस्ते को याद आएगा ठंडा हाथ