क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ
मेरी राहों में तिरी ज़ुल्फ़ के बल आते हैं
मैं वो आवारा-ए-तक़दीर हूँ यज़्दाँ की क़सम
लोग दीवाना समझ कर मुझे समझाते हैं
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मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें
मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू
ख़ता-वार-ए-मुरव्वत हो न मरहून-ए-करम हो जा
एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
एक वा'दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
हर माह लुट रही है ग़रीबों की आबरू
नज़र नज़र बे-क़रार सी है नफ़स नफ़स में शरार सा है
चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
काँटे तो ख़ैर काँटे हैं इस का गिला ही क्या
चाँदनी शब है सितारों की रिदाएँ सी लो