हर माह लुट रही है ग़रीबों की आबरू
चढ़ने लगा हिलाल-ए-क़ज़ा दाम चढ़ गए
ऐ वक़्त मुझ को ग़ैरत-ए-इंसाँ की भीक दे
रोटी में बिक गई है रिदा दाम चढ़ गए
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चश्म को ए'तिबार की ज़हमत
कोई ताज़ा अलम न दिखलाए
क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
ख़ता-वार-ए-मुरव्वत हो न मरहून-ए-करम हो जा
महफ़िलें लुट गईं जज़्बात ने दम तोड़ दिया
ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं
वो बुलाएँ तो क्या तमाशा हो
ख़ाक उड़ती है तेरी गलियों में
है एहतिसाब-ए-वक़्त की लटकी हुई सलीब
कलियों की महक होता तारों की ज़िया होता
नज़र नज़र बे-क़रार सी है नफ़स नफ़स में शरार सा है