है एहतिसाब-ए-वक़्त की लटकी हुई सलीब
हर रोज़ जैसे रोज़-ए-जज़ा दाम चढ़ गए!
नक़्द-ए-ख़िरद सुरूर-ए-तमन्ना का मोल है
अरमाँ का रंग ज़र्द हुआ दाम चढ़ गए
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चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
ख़ाक उड़ती है तेरी गलियों में
चश्म को ए'तिबार की ज़हमत
साक़िया एक जाम पीने से
आहन की सुर्ख़ ताल पे हम रक़्स कर गए
जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
जिन से ज़िंदा हो यक़ीन ओ आगही की आबरू
जो चमन की हयात को डस ले
एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ