छुप के आएगा कोई हुस्न-ए-तख़य्युल की तरह
आज की रात चराग़ों को जलाना है मना
खोल दो ज़ेहन के सहमे हुए दरवाज़ों को
आज जज़्बात पे लहरों का बिठाना है मना
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मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
हूरों की तलब और मय ओ साग़र से है नफ़रत
कोई ताज़ा अलम न दिखलाए
राहज़न आदमी रहनुमा आदमी
चाँदनी शब है सितारों की रिदाएँ सी लो
जिन से अफ़्साना-ए-हस्ती में तसलसुल था कभी
ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
हम बनाएँगे यहाँ 'साग़र' नई तस्वीर-ए-शौक़
तुम गए रौनक़-ए-बहार गई
क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ