बे-क़रारी में भी अक्सर दर्द-मंदान-ए-जुनूँ
ऐ फ़रेब-ए-आरज़ू तेरे सहारे सो गए
जिन के दम से बज़्म-ए-'साग़र' थी हरीफ़-ए-कहकशाँ
ऐ शब-ए-हिज्राँ कहाँ वो माह-पारे सो गए
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जज़्बा-ए-सोज़-ए-तलब को बे-कराँ करते चलो
हम बनाएँगे यहाँ 'साग़र' नई तस्वीर-ए-शौक़
मैं ने लौह-ओ-क़लम की दुनिया को
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
ये किनारों से खेलने वाले
मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
जिन से ज़िंदा हो यक़ीन ओ आगही की आबरू
हम फ़क़ीरों की सूरतों पे न जा
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
लोग कहते हैं रात बीत चुकी