तुम गए रौनक़-ए-बहार गई
तुम न जाओ बहार के दिन हैं
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मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर
चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं
अब न आएँगे रूठने वाले
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
ज़ख़्म-ए-दिल पर बहार देखा है
हम बनाएँगे यहाँ 'साग़र' नई तस्वीर-ए-शौक़
मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू