मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
ग़म की सियाह रात से घबरा के पी गया
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मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
सोने चाँदी की चमकती हुई मीज़ानों में
ऐ कि तख़्लीक़-ए-बहर-ओ-बर के ख़ुदा
चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
कलियों की महक होता तारों की ज़िया होता
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं
कोई ताज़ा अलम न दिखलाए
एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
मैं ने लौह-ओ-क़लम की दुनिया को
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
काँटे तो ख़ैर काँटे हैं इस का गिला ही क्या