मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर
मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया
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महफ़िलें लुट गईं जज़्बात ने दम तोड़ दिया
जाम-ए-इशरत का एक घोंट नहीं
आह! तेरे बग़ैर ये महताब
कोई ताज़ा अलम न दिखलाए
ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं
साक़ी की इक निगाह के अफ़्साने बन गए
हम फ़क़ीरों की सूरतों पे न जा
मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू
नज़र नज़र बे-क़रार सी है नफ़स नफ़स में शरार सा है
जाम टकराओ! वक़्त नाज़ुक है
ज़िंदगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है
सोने चाँदी की चमकती हुई मीज़ानों में