काँटे तो ख़ैर काँटे हैं इस का गिला ही क्या
फूलों की वारदात से घबरा के पी गया
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जाम टकराओ! वक़्त नाज़ुक है
जिन से ज़िंदा हो यक़ीन ओ आगही की आबरू
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
छुप के आएगा कोई हुस्न-ए-तख़य्युल की तरह
चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
साक़ी की इक निगाह के अफ़्साने बन गए
ज़ख़्म-ए-दिल पर बहार देखा है
बरगश्ता-ए-यज़्दान से कुछ भूल हुई है
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
राहज़न आदमी रहनुमा आदमी