जो चमन की हयात को डस ले
उस कली को बबूल कहता हूँ
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चाँदनी को रसूल कहता हूँ
एक बहकी हुई नज़र तेरी
बे-क़रारी में भी अक्सर दर्द-मंदान-ए-जुनूँ
ला इक ख़ुम-ए-शराब कि मौसम ख़राब है
तेरी नज़र का रंग बहारों ने ले लिया
अब न आएँगे रूठने वाले
क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
तुम गए रौनक़-ए-बहार गई
ज़िंदगी और शराब की लज़्ज़त
नग़्मों की इब्तिदा थी कभी मेरे नाम से
छुप के आएगा कोई हुस्न-ए-तख़य्युल की तरह