जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
उस दौर के सुल्तान से कुछ भूल हुई है
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जो चमन की हयात को डस ले
इस दर्जा इश्क़ मौजिब-ए-रुस्वाई बन गया
कल जिन्हें छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र
आज फिर बुझ गए जल जल के उमीदों के चराग़
अब न आएँगे रूठने वाले
बे-क़रारी में भी अक्सर दर्द-मंदान-ए-जुनूँ
दुनिया-ए-हादसात है इक दर्दनाक गीत
मेरे तसव्वुरात हैं तहरीरें इश्क़ की
जाने वाले हमारी महफ़िल से
आओ इक सज्दा करें आलम-ए-मदहोशी में
तुम गए रौनक़-ए-बहार गई
रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए