जिस अहद में लुट जाए फ़क़ीरों की कमाई
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है
Mir Taqi Mir
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छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार
मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें
ज़िंदगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है
वक़्त के रंगीं गुल-दस्ते को याद आएगा ठंडा हाथ
महफ़िलें लुट गईं जज़्बात ने दम तोड़ दिया
चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
ज़िंदगी और शराब की लज़्ज़त
तक़दीर के चेहरे की शिकन देख रहा हूँ