जिन से अफ़्साना-ए-हस्ती में तसलसुल था कभी
उन मोहब्बत की रिवायात ने दम तोड़ दिया
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ये किनारों से खेलने वाले
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
ला इक ख़ुम-ए-शराब कि मौसम ख़राब है
काँटे तो ख़ैर काँटे हैं इस का गिला ही क्या
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
एक वा'दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
फिर उमड आए हैं यादों के सुहाने बादल
जिस दौर में लुट जाए ग़रीबों कमाई
ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू
चाक-ए-दामन को जो देखा तो मिला ईद का चाँद
लोग कहते हैं रात बीत चुकी