है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं
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छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार
दुख-भरी दास्तान माज़ी की
मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
इस दर्जा इश्क़ मौजिब-ए-रुस्वाई बन गया
एक शबनम के क़तरे की तक़दीर को
अब न आएँगे रूठने वाले
कल जिन्हें छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र
वक़्त के रंगीं गुल-दस्ते को याद आएगा ठंडा हाथ
ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ
तुम गए रौनक़-ए-बहार गई