ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
जा चुकी है बहार चुप हो जा
Gulzar
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ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
तेरी नज़र का रंग बहारों ने ले लिया
बे-क़रारी में भी अक्सर दर्द-मंदान-ए-जुनूँ
मर गए जिन के चाहने वाले
अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
जिन से अफ़्साना-ए-हस्ती में तसलसुल था कभी
ऐ कि तख़्लीक़-ए-बहर-ओ-बर के ख़ुदा
जाम टकराओ! वक़्त नाज़ुक है
नज़र नज़र बे-क़रार सी है नफ़स नफ़स में शरार सा है
कोई ताज़ा अलम न दिखलाए
छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार
वक़्त की उम्र क्या बड़ी होगी